ब्रिटिश काल में अंग्रेजों को भारत के इतिहास के बारे में गलत जानकारी दी गई थी. संस्कृत के बारे में यहाँ के तत्कालीन पढ़े लिखे लोगों ने उन्हें बताया था कि यही यहाँ की मुख्य भाषा थी. यही वजह थी कि अंग्रेजों ने यहाँ जातीय और भाषाई जनगणना करवाई.
प्रसिद्ध साहित्यकार और इतिहासविद प्रोफेसर एफ़. मैक्स मुलर का जनवरी 1896 का एक नोट मिलता है जिसमें वो लिखते हैं कि हिएन्न सेंग, जो भारत आया एक चीनी यात्री था, के द्वारा लिखे गए यात्रा संस्मरणों को जब 1846 में फ्रेंच लेखक स्तानिस्लास जुलिएन द्वारा अनूदित पुस्तक के रोप्प में उन्होंने देखा तो उसे देख उन्हें काफी निराशा हुई क्योंकि उनको उस अनुवाद में संस्कृत भाषा से संबधित कोई जानकारी नहीं मिली. उन्हें उम्मीद थी कि उनके इस अनुवाद से उस समय में माने जाने वाले मध्यकालीन युग में संस्कृत के बारे में कुछ जानकारी मिलेगी परन्तु उसमें संस्कृत भाषा का कोई उल्लेख ही नहीं मिलता. इसलिए उन्होंने अक्टूबर 2, 1880 में जर्नल एकेडेमिया में आलेख लिखा था कि संस्कृत के इतिहास के बारे में जानने में इत्सिंग के लेखन का अनुवाद काफी महत्वपूर्ण होगा. इस आलेख को लिखने का कारण उनके शिष्य जापान के ज़ासवारा द्वारा आरम्भ किया गया कार्य था परन्तु दुर्भाग्य से जासावारा की मृत्यु हो गयी और अनुवाद पूरा नहीं हो पाया था. 1880 में ही उन्होंने इंडियन एंटीक्वेरी पत्रिका में "भारत हमे क्या सिखा सकता है-संस्कृत साहित्य का पुनर्जन्म" शीर्षक वाले आलेख में लिखा था और आशा व्यक्त की थी कि इत्सिंग के कार्य का अनुवाद भारतीय संस्कृति को जानने में मदद करेगा. उन्होंने आश्चर्यजनक रूप से लिखा कि मुझे उम्मीद है जिस कोशिश में चीनी यात्री आते थे, यानी बुद्ध का सही जन्म समय जानने, उसमें वो कामयाब नहीं होंगे बल्कि हमे संस्कृत साहित्य के बारे में विस्तृत जानकारी अवश्य मिलेगी. अब ये सवाल उठना लाज़मी है कि प्रोफेसर मुलर के दिमाग में ये पूर्वाग्रह कैसे आया होगा ?